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Sunday, July 28, 2013

प्रथम पीड़ा

28.05.1997
09:30 P.M
प्रथम पीड़ा
अब मिटती जा रही है
उस चीख़ की गूँज अब
गूँजती है वादियों में

बदन में झुरझुरी-सी फ़ैल जाती है
वो गूँज कभी सुनायी पड़ती है तो

तुम कब उस चीख़
को भूल पड़ी ?

अब आप ही तुम्हारे चेहरे के
भाव बदल जाते है
तुम्हारे होंठ लरज़ रहे
थे उस दिन
 आज प्यासे-से नज़र
आते है
आँखों में तैरते लाल डोरे
बेख़ौफ़ मुझे
बुलाते है

तुम्हारा वजूद हिंडोले लेता है
तृप्ती के सागर में
अंग झूलते हुए आप ही
मुझमें समा जाते है

तुम कितना खुश नज़र आती हो !

Tuesday, July 16, 2013

तेरी कुर्बत भी कभी परेशाँ कर देती है मुझे

तेरी कुर्बत भी कभी परेशाँ कर देती है मुझे
कभी लूट लेता हूँ मज़ा जी भर के ख्यालों में 

Wednesday, July 3, 2013

फर्क पड़ता है - हाँ

फर्क पड़ता है - हाँ
किसी-किसी को फर्क पड़ता है !
कोई हम संग पल-पल जोड़े बैठा है
कोई समझ रहा है धड़कने दिल की
फ़कत गिले करने के लिये ही तो शब्द नहीं बने है ?
आभार भी प्रकट करता हूँ ज़िंदगी का.......
मजबूरी तो नहीं है सोच से सोच मिलाना
मगर अच्छा तो लगता है कभी खुद को भी भूल जाना
हाँ ! कभी बंधन की भी अभिलाषा है मन को
प्यार हो और मुझे बाँध ले कच्ची डोर से
कभी इस ओर से - कभी उस ओर से
मेरी नादान इच्छाओ ने परेशान रखा है मुझे
वरना कुदरत ने तो बाहें फैला रखी है हरदम
जरूरत है मुझे खुद को ही समझने की बस !!!!!!!!!