तुम फिर उसी शरारत में हो कि मैं कलम उठाऊं
हुस्न से फिसलते हुए अल्फ़ाज़ कागज़ पर सजाऊं
कि अदाओं की सरगोशियाँ शरारत से खेल जाएं
ज़ख्म-ए-तीर-ए-नज़र का मंज़र किसे दिखाऊँ
तुम तो तुम हो, मगर तुम क्या जानो, क्या तुम हो
ताब - ए - तबस्सुम की दिल रुबाईयाँ कैसे बताऊँ
सौ बार देख कर भी तस्वीर तुम्हारी कसक एक है
मचलते जज्बातों की दुश्वारियाँ कहाँ दरया में बहाऊँ
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