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Monday, March 15, 2021

तुम फिर उसी शरारत में हो कि मैं कलम उठाऊं

तुम फिर उसी शरारत में हो कि मैं कलम उठाऊं 
हुस्न से फिसलते हुए अल्फ़ाज़ कागज़ पर सजाऊं

कि अदाओं की सरगोशियाँ शरारत से खेल जाएं
ज़ख्म-ए-तीर-ए-नज़र का मंज़र किसे दिखाऊँ 

तुम तो तुम हो, मगर तुम क्या जानो, क्या तुम हो
ताब - ए - तबस्सुम की दिल रुबाईयाँ कैसे बताऊँ

सौ बार देख कर भी तस्वीर तुम्हारी कसक एक है
मचलते जज्बातों की दुश्वारियाँ कहाँ दरया में बहाऊँ




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