02-05-1992
09:45 AM
तेरे महल का कोई दरीचां खुला न था
मुफ़लिस तेरा दीदार फिर कैसे करता
तुझसे मिलने का कोई ज़रिया पता न था
दीवाना विसाल-ए-यार फिर कैसे करता
ग़म उठाता रहा ता-उम्र जुदाई में तेरी
अश्क बहाने के सिवा भी वो क्या करता
ख़ुदा तेरी खुदाई से था ताल्लुक इसका
वरना 'नितिन' यहाँ जीकर भी क्या करता
तंज़ कितने सहे ज़माने में रंज़ोग़म के साथ
सजदा करता न इश्क में तो क्या करता
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