(1991 से इक ग़ज़ल तरसाती सी .......मगर लुभाती सी ..........)
तेरी बस इक झलक को तरसता हूँ
वास्ता तुझसे रहे इस बात को तरसता हूँ
खुशबू तेरे सांसों की ले न पाया तो क्या
अपनी हर सांस तुझे देने को तरसता हूँ
फ़ितरत से तेरी कोई रश्क-ओ-ग़म नहीं मुझे
हस्ती क्यूं अपनी मिटाने को तरसता हूँ
दुश्मनी का भी तो कोई वजूद नहीं तुमसे
फिर भी मैं तेरी दोस्ती को तरसता हूँ
ऐसा नहीं है हमको ऐतबार नहीं ख़ुद पर
न जाने क्यूं तुझे पाने को तरसता हूँ
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