चलना चलना चलना
बस चलते ही जाना
यही है कहानी मन की
चलता है
भागता है
केवल मन
हम समझते हैं
जिंदगी पे आयी है बन
जैसे गाड़ी में बैठा
बच्चा कहता है
दौड़ रहे हैं खंबे
भाग रही है धरती
ऐसा ही तो नही
जिंदगी करती ?
वैसे ही मन
दौड़ रहा है
भीतर कुछ-कुछ
जोड़ रहा है
पर जिंदगी सारी
छोड़ रहा है
जिंदगी तो
बाहें फैलाए खड़ी है
प्रीत की लगाये झडी़ है
इक हम है बस
मन की पड़ी है
मन चंचल नासमझ
भटकाता है हमें
जो पाया नहीं उसमें
उलझाता है हमें
सब कहता है बस जिंदगी
नही समझाता है हमें
जीने ही नहीं देता
वह पल जो अभी है
कहता तो है तेरे
साथ सभी है
जतलाता मगर
कभी-कभी है
मन में भरा सदा
अगम अतीत
जीवन है ...
नहीं होता प्रतीत
जिंदगी खड़ी खड़ी
जाती है बीत
कर ही नहीं पाते हम
इससे प्रीत
कब बदलेगी ?
यह मन की रीत
जिंदगी जाएगी
कब जीत ?
कब बनेगी ?
वो मेरे मन की मीत