13-05-1992
04:20 PM
बड़ी आम सी गुज़र रही है ज़िंदगी
कुछ यहाँ पर मैं ख़ास चाहता हूँ
पत्थरों से खेलना शौक़ नहीं मेरा
नाज़ुक से सुर्ख़ रुखसार चाहता हूँ
उजाले ढलें कहीं काली घटाओं में
बेतरतीब ज़ुल्फों की कतार चाहता हूँ
नज़दीक आऊँ इस तरह बेखुदी के मैं
धड़के दिल मेरा बे-इख्तियार चाहता हूँ
सहला सकूँ मैं कुछ जज़्बात अपने
हँसी ऐसा कोई हमराज़ चाहता हूँ
दौलत की जुस्तज़ू न तमन्ना शोहरत की है
या इलाही मैं थोड़ा-सा प्यार चाहता हूँ
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