शायर तेरा नसीब मुझे अजीब सा लगता है
ग़म से तेरा रिश्ता मुझे नज़दीक सा लगता है
अपने ही तब्बस्सुम से बेचैन हो उठता है कभी
कभी तमाम उदासीयों का रक़ीब सा लगता है
किस्से किस तरह तेरे अजीबतर हो रहे है
वजूद ही तेरा अब मुझे तक़सीम सा लगता है
कितने धोखे मिले ज़माने से अब तक
सादा दिल ही रहा मुझे शरीफ़ सा लगता है
शायर तेरा नसीब मुझे अजीब सा लगता है
ग़म से तेरा रिश्ता मुझे नज़दीक सा लगता है
ग़म से तेरा रिश्ता मुझे नज़दीक सा लगता है
अपने ही तब्बस्सुम से बेचैन हो उठता है कभी
कभी तमाम उदासीयों का रक़ीब सा लगता है
किस्से किस तरह तेरे अजीबतर हो रहे है
वजूद ही तेरा अब मुझे तक़सीम सा लगता है
कितने धोखे मिले ज़माने से अब तक
सादा दिल ही रहा मुझे शरीफ़ सा लगता है
शायर तेरा नसीब मुझे अजीब सा लगता है
ग़म से तेरा रिश्ता मुझे नज़दीक सा लगता है
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