20-08-1994
5:30 PM
5:30 PM
दिल खोल कर अपना दिखा सकोगे ?
क्या ग़म-ए-ज़िंदगी का बोझ उठा सकोगे?
तुम्हारे हुस्न की अदाएं मै समझ रहा हूँ
वफा-ए-इश्क की रस्में निभा सकोगे ?
ये वो शय नही कोई उड़ा दे रंग इसका
तस्वीर-ए-मोहब्बत को दिल में बिठा सकोगे ?
सहना मुश्किल है दुश्वारिया ज़माने की
दामन-ए-वफा को रुसवाई से बचा सकोगे ?
सौदे बाज़ी का नही खेल इश्क है ये
अपना सब कुछ क्या इस पे लुटा सकोगे ?
No comments:
Post a Comment