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Monday, February 20, 2012

इक महजबीं का ही ग़म नहीं उठाता हूँ मैं

22-02-1994
10:00 AM
इक महजबीं का ही ग़म नहीं उठाता हूँ मैं
हर  इक शख्स का ग़मगुसार हूँ मैं

फ़कत ज़ुल्फ़-ए-परीशाँ नहीं सुलझाता हूँ मैं
मुकम्मल ज़ुल्मत-ए-हयात से परेशाँ हूँ मैं

धड़कता नही दिल मेरा इक शोख़ पर ही
हर इक हसीना पर जाँ-निसार हूँ मैं

वीराँ क्यूं रहे कोई भी मयखाना-ए-चश्म
हर नज़र से पैमाना छलकाए ऐसा मयख्वार हूँ मैं

महका जाये  जो  हर  गुल-बदन को
यकीँ जानिए ऐसी फ़स्ल-ए-बहार हूँ मैं

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